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Supreme Court का ऐतिहासिक फैसला, भूमि अधिग्रहण के मामले में आम लोगों को बड़ी राहत

जानिए कैसे सुप्रीम कोर्ट ने 9 जजों की पीठ के ऐतिहासिक निर्णय से संपत्ति मालिकों को दी राहत, और क्यों यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 39(B) पर नए सवाल खड़े करता है।

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Supreme Court का ऐतिहासिक फैसला, भूमि अधिग्रहण के मामले में आम लोगों को बड़ी राहत

भारत के सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सरकार सभी निजी संपत्तियों को सामुदायिक संपत्ति मानकर उन पर कब्जा नहीं कर सकती। 9 जजों की पीठ ने 7:1 के बहुमत से यह निर्णय लिया, जिसमें कोर्ट ने कहा कि केवल कुछ विशेष संपत्तियों को ही सामुदायिक संसाधन मानकर समाज के हित में उपयोग किया जा सकता है। इस फैसले से निजी संपत्ति धारकों को बड़ी राहत मिली है और यह संविधान के अनुच्छेद 39(B) के दायरे और सीमाओं पर पुनर्विचार करने का संकेत देता है।

1978 के फैसले को पलटा गया

इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 1978 में दिए गए अपने ही एक ऐतिहासिक निर्णय को पलट दिया। उस समय, जस्टिस कृष्णा अय्यर ने एक फैसले में सभी निजी संपत्तियों को सामुदायिक संसाधन के दायरे में लाने की बात कही थी। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली इस बेंच ने महाराष्ट्र सरकार के एक कानून से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए यह निर्णय लिया। कोर्ट ने कहा कि जब तक संपत्ति का अधिग्रहण सीधे तौर पर समाज के लिए लाभकारी न हो, तब तक सरकार का उस पर कब्जा उचित नहीं है।

अनुच्छेद 39(B) के उपयोग पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती

मामला भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39(B) से संबंधित है, जो समाज के सामूहिक हित के लिए सामुदायिक संसाधनों का समान वितरण सुनिश्चित करने की बात करता है। महाराष्ट्र सरकार ने इस अनुच्छेद का हवाला देते हुए अपने कानून में संशोधन किए, ताकि जरूरतमंदों के लिए जमीन अधिग्रहण किया जा सके। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि इस अनुच्छेद का असीमित और मनमाना उपयोग निजी संपत्तियों के अधिग्रहण के लिए नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने यह भी हिदायत दी कि ऐसे मामलों में संतुलित और न्यायसंगत दृष्टिकोण अपनाना होगा।

महाराष्ट्र के MHADA कानून पर विवाद

इस ऐतिहासिक मामले में महाराष्ट्र सरकार के MHADA (Maharashtra Housing and Area Development Authority) कानून की भूमिका प्रमुख थी। इस कानून के तहत, राज्य सरकार को अधिकार है कि वह जर्जर इमारतों और जमीनों का अधिग्रहण कर सके, बशर्ते कि मकान मालिक इसके लिए सहमत हों। हालांकि, इस कानून को प्रॉपर्टी ओनर्स एसोसिएशन (POA) ने चुनौती दी थी। POA ने आरोप लगाया कि सरकार इस कानून का दुरुपयोग करते हुए निजी संपत्तियों पर मनमाना कब्जा कर रही है।

POA ने सरकार के खिलाफ याचिका दायर की

1992 में प्रॉपर्टी ओनर्स एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट में MHADA कानून के खिलाफ याचिका दाखिल की। उनका दावा था कि सरकार निजी संपत्तियों को अनुचित तरीके से अपने कब्जे में ले रही है और इस प्रक्रिया में संपत्ति मालिकों के अधिकारों का हनन हो रहा है। सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने MHADA कानून को अनुच्छेद 31C के तहत सुरक्षित बताने की कोशिश की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे मानने से इनकार कर दिया।

जजों की राय में असहमति

इस फैसले में 9 जजों की बेंच में से 7 जज बहुमत के साथ सहमत थे, जबकि 2 जजों ने असहमति जताई। जस्टिस बीवी नागरत्ना ने कोर्ट के मुख्य फैसले से आंशिक असहमति जताई, जबकि जस्टिस सुधांशु धूलिया ने पूरी तरह से असहमति जाहिर की। यह असहमति इस बात पर केंद्रित थी कि क्या सरकार के अधिकारों को और अधिक सीमित किया जाना चाहिए या कुछ मामलों में इसे लचीला रखा जाना चाहिए।

ऐतिहासिक फैसले का महत्व

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारत के संपत्ति कानूनों और सामुदायिक संसाधनों के प्रबंधन में एक मील का पत्थर साबित होगा। इससे स्पष्ट हो गया है कि सरकार के पास निजी संपत्तियों पर असीमित अधिकार नहीं हो सकते। यह फैसला न केवल संपत्ति मालिकों को सुरक्षा प्रदान करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि सामुदायिक संसाधनों का इस्तेमाल समाज के व्यापक हित में ही हो।

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